रविवार, 1 जनवरी 2012

यादें पिता जी की


1.

पिताजी,

कैंसर-नदी के बीच-भँवर में फँसे हुए थे

हम उन्हें देख सकते थे

स्पर्श कर सकते थे

संवाद कर सकते थे

मगर हम उन्हें

उस भँवर से निकाल नहीं सकते थे

वह आशाभरी निगाहों से हमें देख रहे थे

और हम पौरुषहीन

केवल रो सकते थे



2.

पिता का गमगीन चेहरा देखकर पूछा था –

‘आप हँसते क्यों नहीं ?‘

‘अंदर से जब कोई रो रहा हो

ऊपर से कैसे हँसे

सच तो यह है कि

अब हँसने की शक्ति भी नहीं बची

शरीर में शक्ति आते ही हँसूगा ’

मैं उन्हें सांत्वना दे रहा था

और वे मुझे



3.

पिता का मांसल शरीर

कंकाल में तब्दील हो चुका था

फिर भी वे जीने की बात कर रहे थे

पोतियों की शादी के बारे में सोच रहे थे

कैंसर से लंबी लड़ाई लड़ने का संकल्प ले रहे थे

‘बस मुझे अपने पैरों पर खड़े हो जाने दो’

मैं जानता था

वह दिन कभी नहीं आने वाला

फिर भी मैं झूठ बोल रहा था –

‘आप जल्द अच्छे हो जाएंगे ’



4.

जब तक पिताजी ठीक-ठाक थे

मैं सोचता था –मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है

अब जब वे नहीं हैं

मुझे अपने होने का मतलब समझ में नहीं आता

अक्सर हम

सही समय पर सही वस्तु का

सही मूल्य समझ नहीं पाते

पिता विस्तर तक सीमित हो चुके थे

और मैं उनका

बच्चों की तरह देख-भाल कर रहा था

फिर भी मैं

उनके सामने बच्चों की तरह रो रहा था

और वे मुझे पिता की तरह समझा रहे थे

बचपना मनुष्य का साथ कभी नहीं छोड़ती

कम से कम पिता जब तक जीवित हों



5.

पिता

घर के लिए रोशनी थे

यह रोशनी

उनकी आँखों की चमक में दिखती थी

उनके अथक श्रम की गति में दिखती थी

नये उजले सुबह की आस में दिखती थी

उनके खुद के अनन्त विश्वास में दिखती थी



6.

पिता,

वह वट-वृक्ष थे

जिसके प्रतेक पत्ते पर लिखा था

धैर्य, विश्वास, श्रम

उन पत्तों को मैं तब पढ़ रहा हूँ

जब यह वट-वृक्ष

इस घर को

अपनी अंतिम रोशनी दे चुका है

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