बुधवार, 11 जनवरी 2012

गजल

मैंने नब्बे के दशक में गजलें लिखी थीं। उन्हीं को आप के सामने रख रहा हूँ

                    1.

बच्चे को कल डरा गया कोई।


उसका बचपन चुरा गया कोई।


पर्वतों से नदी निकलती है,

संगदिल को दिखा गया कोई।


जिंदगी अनकही कहानी है,

जिंदगी को सुना गया कोई।


आदमी के दिलों से बेमौसम,

आदमीयत हटा गया कोई।


घोर तम में भी रोशनी बनकर,

‘दीप’ खुद को जला गया कोई।



                     2.


हार ने बारहा मुझको तोड़ा बहुत।

जिंदगी ने मुझे है निचोड़ा बहुत।


जब भी चाहा छू लूँ खुला आसमां,

वक्त ने हाथ मेरा मरोड़ा बहुत।


भार कंधों पे है अब जमाने का कुछ,

इसलिए दर्द ने मुझको जोड़ा बहुत।


भोर की राह में मर मिटे वो मगर,

खुद उजाले ने उनको झिंझोड़ा बहुत।


रोशनी की जमीं के लिए धूप ने,

खो दिया पास में जो था थोड़ा बहुत।


हर मकां हो गया ‘बोनसाई’ का घर,

‘दीप’ को बेबसी ने सिकोड़ा बहुत।


                       3.


फिर उगा आँख में मरा सपना।

किस तरह देखूँ फिर नया सपना।


हर नदी की निगाह में देखा,

सागरों का हरा-भरा सपना।


भागता हूँ डरा मैं, और मुझसे

भागता है डरा-डरा सपना।


मुफलिसों की नजर में हमने ‘दीप’

देखा अक्सर बुझा-बुझा सपना।


                      4.


दरख्तों में भी दिख जाता है दिल कहीं.

मगर आदमी में आदमीयत नहीं।


समंदर तेरे इस प्यास को क्या कहें,

बुझाने के लिए जिसको नदियाँ बहीं।


बहुत आगे, माना, आ गए तुम मगर

क्या होगा उनका अब, रह गए जो वहीं।


संभल कर कदम रखना जरा नाँव में,

हवाएं नदी से गुप्तगू कर रहीं।


जिन्हें छोड़ आया था बहुत दूर मैं,

वही बातें सपनों में सताती रहीं।


यहाँ की फिजाएं कहती हैं बार-बार

कि झरते हैं गुल खिलने से पहले यहीं।


                5.


दगी की कहानी सुनो।

आदमी की जुबानी सुनो।


खो गया भीड़ में आदमी,

मर गया उसका पानी सुनो।


गाँव तक आने मं थक गई,

रोशनी की जवानी सुनो।


कौन सा जल कहाँ है छिपा,

इक नदी की जुबानी सुनो।


 ढो रही गम कुँवारी हवा

‘दीप’ बनकर सयानी सुनो।


                  6.

खींच ली पाँव से अब जमीं देखिय़े।

आज की यह नई रोशनी देखिये।


उस नदी पर बसी जिंदगी देखिये।

बढ़ रही है वहीं तिशनगी देखिये।


गाँवों को दे रहे तीरगी देखिये।

इन महानगरों की दिल्लगी देखिये।


इस नए दौर का आदमी देखिये।

धड़ कटा, चल रहा, सादगी देखिये।


जिस जगह भेलियाँ गुड़ की हों दीप जी,

चीटियों की वहाँ बंदगी देखिये।


                        7.


प्रेम का मद पिला गया कोई।

दर्द का गुल खिला गया कोई।


देर तक याद आ नये छत पर,

चाँदनी को रूला गया कोई।


तोड़ने पर पता चला उनको,

उनका दिल भी गला गया कोई।


याद हूँ उनको मैं, बिना बोले

यह दिलासा दिला गया कोई।


वर्ष के पहले दिन ही चिट्ठी दे,

मुझको फिर से बुला गया कोई।


इस हताशा भरे निशा मन में

‘दीप’ नेह का जला गया कोई।


                   8.


दिल से ये जो धुआँ-सा उठता है।

वो मेरे सपनों का ही कतरा है।


कह भी सकती नहीं जुबाँ उसकी,

उसके मुख पर किसी का पहरा है।


बोले भी कैसे वो जुबाँ अपनी,

वो किसी और का ककहरा है।


कौन से ख्वाब में पड़े हो तुम,

वह किसी और का ही मुहरा है।


हार सकता नहीं, अभी उसकी

आँखों में ख्वाब जो सुनहरा है।



                    9.


जब दिलों में नमीं नहीं होती।

दोस्ती, दोस्ती नहीं होती।


धुन के पक्के जो होते हैं, उनको

रास्तों की कमी नहीं होती।


हाल उन सूरजों का क्या होगा,

जिनमें अब रोशनी नहीं होती।


दुःख में जिनका गुजारा होता है,

उनको सुख की कमी नहीं होती।


क्यों परिन्दे के पर कतरते हो,

उनमें क्या जिंदगी नहीं होती।


आजकल जो जहाँ पे होता है,

खोज उसकी वहीं नहीं होती।


                10.


अपनों से वह कटा है।

गमलों में जो खिला है।


रात भर क्या गला है,

सूर्य को क्या पता है।


वह नमी में जला है,

तथ्य कुछ अटपटा है।


सोचता जो नहीं कुछ,

वह तो पल-पल मरा है।


है सुबह किस तरह की?

गम ही रोशन हुआ है


याद में आज उसकी

‘दीप’ का मन उड़ा है।

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