एक प्रगतिशील विचारधारा का वाहक 'उद्गार' आप सबका स्वागत करता है। यहाँ वाद-प्रतिवाद एवं संवाद की पूरी स्वतंत्रता है।
रविवार, 8 जनवरी 2012
गजल
मैंने नब्बे के दशक में गजलें लिखी थीं। उन्हीं को आप के सामने रख रहा हूँ –
चाहे वह जहाँ घटता है।
वह यहाँ कहाँ रहता है?
तोड़ दो ये घेरा अब तो
मजहबों में दम घुटता है।
कौन ध्यान देगा तुझ पर
बहरों से क्यों कहता है।
‘दीप’ दर्द अपना मत कह,
दिल तेरा सब सुनता है।
2.
इक घने गम की हँसी हूँ।
मैं डरे मन की सदी हूँ।
कर न मुझसे ख्वाब की बात,
मैं जमीं का आदमी हूँ।
जा नहीं सकता उधर मैं,
मैं इधर की रोशनी हूँ।
देखकर टुकड़ों में खुद को,
हो गया मैं अजनबी हूँ।
क्या कहें अपनी कहानी,
सुखा कुछ तो, कुछ नमीं हूँ।
3.
मजहबों की यही कहानी है।
बंद बोतल में बासी पानी है।
खो गयी भीड़ में इंसानियत,
यह हमारी नई निशानी है।
रात के गर्भ में उजालों की,
उन्नती की छिपी जवानी है।
मत करो अब सुधरने की आशा,
उनमें ये रोग खानदानी है।
आस्था का जहर नहीं पीती,
कौन वह मीरा-सी दिवानी है?
4.
मेरी आँखों में सपना है।
जुर्म बस यही अपना है।
खून से भरा है मंजर,
और दिल को सब सहना है।
देखिए, जमाने से वह
बदनसीबी को पहना है।
मेरी बेबसी तो देखो,
गूंगे शब्दों में कहना है।
‘दीप’ बंदिशें हैं माना,
फिर भी कुछ न कुछ कहना है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें