शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

माँ


माँ चश्में पर विश्वास करती है
और चश्में का विश्वास माँ से उठता जा रहा है

माँ
डाँक्टर से बार-बार सलाह लेती है
डाँक्टर की सलाह उसे जँचती है
अच्छी लगती है
वह चाहती है फिर से 
विश्वास की दुनिया में शामिल होना
किलकते शिशुओं को हूबहू  देखना
बेटों और बहुओं के चेहरों पर फैली 
अनगढ़ रेखाओं को साफ-साफ पढ़ना
पति के लिए बनी चाय में 
खुद ही शक्कर बन जाना

लेकिन
चुकती नजरों के परे जो घर है
नाँ को उसकी तस्वीर
कहीं अधिक धुँधली महसूस होती है

डाँक्टर को चुकती नजर 
आँखों के अन्दर दिखाई देती है
जबकि माँ अच्छी तरह से जानती है
उसकी आँखों की रोशनी
घर के भार से 
दिन पर दिन दबती जा रही है

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