शनिवार, 7 जनवरी 2012

प्राचीन भारतीय सामाज का एक अध्ययन

समाज परिवर्तनशील है। समाज का इतिहास इसका साक्षी है। भारतीय समाज अपनी संरचना में अपने अतीत से प्रभावित है। यह एक होकर भी पृथ्क-पृथ्क है और पृथ्क-पृथ्क होकर भी एक है। भारत का लिखित इतिहास बहुत दूर तक नहीं जाता। लिखित साहित्य का इतिहास पाँच हजार वर्ष से अधिक का नहीं है। पुराण बहुत बाद मं लिखे गए। यह जरुर है कि बहुत पहले से ये वाचिक परंपरा में चले आ रहे थे। पुराणों में स्मृतियों को काल्पनिक और भावात्मक आधार देकर विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया। इसके बावजूद इनमें सामाजिक इतिहास के संकेत सूत्र मिलते हैं। हमारा भारतीय सामाज कई भागों में बँटा हुआ है। जब हम इस बँटवारे का कारण खोजते हैं तो हमें इतिहास की शरण में जाना पड़ता है।

मनुष्य बीते युगों का सार-संग्रह है। मानव-जीवन की समस्त युगयात्रा के अवशेष मनुष्य के अवचेतन में विद्यमान हैं। सामूहिक और जातीय स्मृतियाँ एवं अनुभव जीवन की प्रक्रिया में मिथक का रूप धारण कर लोकमन में बस जाते हैं। लोकमन इन्हें बार-बार दोहराता है। मिथक अपनी निर्माण की प्रक्रिया में स्वयं इतिहास की रचना हैं, और वे इतिहास को प्रभावित भी करते हैं, परंतु वे स्वयं इतिहास नहीं होते। भारतीय समाज की समस्या यह है कि वह मिथकों को इतिहास मान लेता है। इन मिथकों में समाज के निर्माण के संकेत जरूर हैं। ऋग्वेद के जिस पुरूष सुक्त में चार वर्णों का जिक्र है, इतिहासकारों के अनुसार ऋग्वेद में यह मिथक बाद में जोड़ा गया है। पुरूष सुक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र-वर्ण का कोई जिक्र नहीं है। अर्थात शूद्र जनजाति का अस्तित्व समाज में नहीं था। या फिर शूद्र जनजाति निर्मार्ण की प्रक्रिया में थी। यद्यपि ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग आर्य और दास वर्ण के लिए हुआ है। उस समय का जनजातीय समूह दो वृहद सामाजिक वर्गों में विभक्त हो रहा था। ऋग्वेदिक सामाज एक जनजातीय सामाज था। इतना संकेत जरूर मिलते हैं कि अथर्ववेद के काल तक समाज चार वर्णों में रेखांकित हो गया था। वर्ण व्यवस्था के उदभव और विकास पर ब्राह्मणों का नियंत्रण नहीं था। बात सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने देख लिया था कि वे उस व्यवस्था का उपयोग अपने हित साधन के लिए कर सकते हैं। निम्नतम जातियाँ अक्सर अपने अनुष्ठानों, संस्कारों और मिथकों को सुरक्षित रखती हैं। ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए और पुरोहित वर्ग ने अपनी जाति की पेशागत प्रभुत्व जमाने के लिए इनका नया भाष्य तैयार किया। ऋग्वेदिक काल तक ब्राह्मण वर्ण पुरोहित वर्ग ही था। लेकिन बाद में ब्राह्मण-धर्म का मुख्य कार्य यही रहा कि इसने इन आख्यानों को एकत्र किया, इन्हें कथा-चक्रों में बाँधकर फैलाया और फिर अधिक विकसित सामाजिक चौखटे में रखकर इन्हें प्रस्तुत किया। इस तरह से विभाजित हो रहे जनजातीय समूह को एक सूत्र में बाँधा भी। लेकिन प्राचिन स्रोत-सामग्री को उसकी समकालिन पृष्ठभूमी में रखकर देखना चाहिए। प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत, विशेषकर संस्कृत स्रोत, मुख्य रूप से ब्राह्मणों की कृतियाँ थीं जो ब्राह्मणीय दृष्टि को रेखांकत करती हैं। यह बात अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है कि ये सामग्री समाज के एक हिस्से की देन है और मुख्यत उसी वर्ग से संबंधित है। यह अलग बात है कि विगत की अधिकतर लिखित प्राचीन सामग्री इसी वर्ग से प्राप्त होती है। निम्नतम जातियाँ यह उत्तरदायित्व नहीं निभा सकी।

निम्न जातियों का प्राचीन इतिहास अधम नहीं था, जैसा कि यूरोपीय विद्वानों ने दिखलाने की कोशिश की है। उन्होंने उपमहाद्वीप के आर्य और गैर आर्य भाषाओं के बोलने वालों के बीच तीब्र भेद किया। जबकि व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं था। प्राचीन भारत में मानव वंश के अनगिनत कबिलाई समूह रहा करते थे जो भोजन की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण किया करते थे। इस क्रम में इनका समागम भी हुआ करता था। इनमें जातियाँ नहीं थीं, पारिवारिक समूह जरूर थे जो विकास के क्रम में भूगोलिक स्थिति के अनुसार भाषागत और परंपरागत विशिष्टता प्राप्त कर रहे थे। आर्य और अनार्य दो जातियाँ न होकर दो समूह थे जो विश्वास और आचार-व्यवहार के आधार पर बँटे हुए थे। आर्य मानववंशों का वह समूह था जो अपने को आचार-व्यवहार और भाषा के उपयोग में श्रेष्ठ मानता था। यह श्रेष्टता सामाजिक और आर्थिक स्तर पर और बढ़ गया जब आर्यों ने पशु-चारक से अन्न-उत्पादन की अवस्था में संक्रमण किया। वह मानव समूह जिसने अन्न-उत्पादन और खेती में हल के उपयोग से इंकार किया पिछड़ गया। यह समूह इतिहास के एक लंबे काल तक अन्न-संग्रहक की अवस्था में ही रही। इस पिछड़े हुए मानववंश समूह को ही त्रग्वेद में दास और दस्यु कहा गया है। ऐसा भी नहीं था कि पूरे उपमहाद्वीप में यही तीन जनजातीय समूह थे, अनगिनत होंगे जिनका उल्लेख वेदों में न हुआ हो। अभी हाल तक आज के झारखंड क्षेत्र में कई जनजातीय समूह रहा करते थे। आज से पाँच हजार वर्ष पहले के भारतवर्ष में कितने जनजातीय समूह रहते होंगे, केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। आर्य वर्ण और दास वर्ण एक ही जनजातीय समूह से अलग हुए दो पृथ्क समूह थे जो सामाजिक वर्गों में विघटित हो रहे थे। ऋग्वेद के दासों और दस्युओं के समाज में कोई स्तरीयकरण नहीं था, ऐसा मान लिया गया है जो संभव नही लगता। इनमें भी कई स्तर थे। दास दस्युओं से सामाजिक स्तर पर जरूर उपर रहे होंगे क्योंकि दासों ने कई लड़ायों में विजय प्राप्त किए थे, इनमें राजा सुदास का नाम प्रमुख है। ऋग्वेदिक समाज में समाज के लिए ‘जन’ और ‘विश’ का प्रयोग ही अधिक हुआ है। उस समय उन दासों को जिनका आचरण श्रेष्ठ होता था आर्य वर्ण में शामिल किया जाता था। एक स्थल पर कहा गया है कि इंन्द्र ने दासों को आर्य में परिवर्तीत किया (यया दासार्न्याणि वृत करो वज्निन्तेसुलूका नाहुषाणि, ऋग्वेद,VI.22.1); वहीं दूसरी ओर इंद्र ने दस्युओं को आर्य की उपाधि से वंचित किया (अहं शूष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्य नाम दस्यवे, ऋग्वेद,)। कहीं-कहीं इंद्र को ब्राह्मणघाती बताया गया है और उसका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण है। इससे स्पष्ट होता है कि आर्यत्व का निरधारण जीवन के तोर-तरीके से होता था। वर्ण की अवधरणा धर्म की अवधारणा से जुड़ी हुई थी। यहाँ धर्म का अर्थ सार्वजनिक नियम से था। इस प्रकार वर्ण धर्म वह सामाजिक नियम या व्यवस्था थी जो समाज को नियंत्रित करता था। यह अवधारणा अधिक था, व्यवहार में शायद ही लागू होता था। यह एक वर्ग विशेष की आकांक्षा हो सकती है। हमारी प्राचीन स्रोत-सामाग्री के अधिकांश में समाज के ऊपरी वर्गों का ही अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण वर्णन हुआ है। निम्न वर्गों के अध्ययन को इसकी तुलना में बहुत अधिक सीमा तक अनुमानों पर निर्भर रहना पड़ता है। वैदिक साहित्य का संबंध मुख्यतः उत्तरी भारत से है। इसके आधार पर पूरे भारत को एक इकाई मानकर फसके बारे में सामान्य निष्कर्ष निकालना असंभव है।

‘दास’ शायद वह जनजातीय समूह था जिसने सर्वप्रथम दश् धातुओं का पता लगाया हो, जो उनकी जीविका भी थी, और उसके मालिक बन बैठे हों। दास मूल्यवान धातुओं का दान दिया करते थे। दस्युओं को धनिनः कहा गया है। वेदों में कहा गया है कि इंद्र ने अधम दासों को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया। यह इस बात का संकेत है कि दास उस समय अपने विकास के सोपान में गुफावासी रहे होंगे। दस्युओं को संपतिशाली होने पर भी यज्ञ न करनेवाला कहा गया है। यह भी कहा गया है कि दस्यों के पास स्वर्ण और हीरे-जवाहरात थे जिसके चलते आर्यों के मन में और भी लालच पैदा हो जाता था। अर्थात दस्यु और दास द्रव्य और खनीज के दृष्टि से अधिक समृधशाली समाज थे। इनकी तुलना में आर्य पशुपालक जनजातीय समूह रहे होंगे। परंतु आर्यों के अन्न-उतपादक होने की स्थिति में समीकरण उलट गया होगा। किसी भी समुन्नत संस्कृति का मूलाधार अनाज की सुलभता और अतिरिक्त संपति होती है जिसके चलते मानसिक कार्य में वह अपने को लगा सकता है।

वर्ण की अवधारणा धर्म की अवधारणा से जुड़ी हुई थी। यहाँ धर्म का मतलब था स्वभाव के अनुसार आचरण। यह स्वभाव व्यक्ति का भी हो सकता था और समाज का भी। एक प्रकार से यह वर्ण-धर्म समाज के व्यवस्थित रीति से काम करने की स्थापना का प्रयत्न था। इस धर्म के स्थापकों (ब्राह्मणों) का कहना था कि समाज चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में बँटा हुआ है। बाद में इसमें पंचम वर्ण (अस्पृश्य) जोड़ दिया गया। पंचम वर्ण के लोगों का घर में प्रवेश नहीं हो सकता था। इनकी स्पृश्यता का आधार यह था कि उन्हें अशौचकारी माना जाता था। इसका कारण या तो यह था कि ये चंडालों, डोमों और शमशानों के रखवाले के रूप में अशौचकारी पेशे में लगे हुए थे, या यह कि निषाद और भिल्ल जैसे आदिम कबिलों के सदस्य थे, जिनकी बोली अलग किस्म की थी और जीवन-पद्धति अजीबो-गरीबो ढंग की।

प्राचीन भारतीय इतिहास को यूरोपीय दृष्टि से देखने के कारण प्राचीन भारतीय समाज की व्याख्या ने गलत दिशा ले ली। भारतीय ही भारतीय के लिए आक्रमणकारी बन गए। प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में कई भ्रम फैलाये गए। धर्म और समाज को अपरिवर्तनशील और अनैतिहासिक बताया गया, जबकि ऐसा है नहीं। यूरोपीय दृष्टि भारतीय परंपरा से काफी भिन्न थी, इसलिए प्राचीन भारतीय इतिहास को सही परिपेक्ष्य में नहीं प्रस्तुत किया जा सका। इनकी ऐतिहासिक व्याख्या आलोचनात्मक होते हुए भी यूरोपीय उपनिवेशवादी दृष्टिकोण का समर्थन करता था। चूँकि अंग्रेज शासक विदेशी थे, इसलिए उनका मानना था कि उनका विरोध करने वाले यहाँ के शासक और उच्च वर्ग के लोग भी विदेशी हैं, क्योंकि उनके पूर्वज आर्य बाहर से आए थे। अतः विदेशी अग्रेजों को भी इस देश पर शासन करने का पूरा अधिकार है।

1937 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़ लिया था, जिससे पूरालिपिक स्रोतों का द्वार खुल गया था। अलेक्जैंडर कनिंघम को 1892 में पुरातत्व सर्वेक्षक नियुक्त किया गया था, लेकिन भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण को वास्तविक प्रोत्साहन तात्कालिन वाइसरा. लार्ड कर्जन से 1910 में मिला। यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय इतिहास पर लिखना अठारहवीं सदी में आरम्भ किया। इनके प्रभाव से शुरू के भारतीय इतिहासकार भी प्रभावित रहे। रोमिला थापर के शब्दों में ‘जब भारतीय इतिहासकारों ने भारत पर लिखना आरंभ किया तब भी ये विचारधाराएं काफी प्रभावशाली रहीं, क्योंकि ये विद्वान बहुधा पूर्ववर्ती व्याख्याओं के प्रत्युत्तर में लिखा करते थे और इसलिए उनकी दृष्टियाँ उन्हीं के सांचे में ढली होती थीं‘ ( प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ-7) और ‘इस काल का अध्ययन करनेवाले यूरोपीय इतिहासकारों की शिक्षा-दीक्षा यूरोप की क्लासिकी परंपरा में हुई थी, जहाँ लोगों का दृढ़ विश्वास था कि यूनान की प्राचीन सभ्यता – यूनान का चमत्कार – मानव-जाति की महानतम उपलब्धि थी। फलस्वरूप, जब भी किसी नई संस्कृति का पता चलता, तो उसकी तुलना प्राचीन यूनान से की जाती, और इस तुलना में उसे निरपवाद रूप से हीन पाया जाता। या अगर उसमें कोई प्रशंसनीय बात होती भी तो सहज भाव से उसे यूनानी संस्कृति के साथ जोड़ने की चेष्टा की जाती‘ (भारत का इतिहास, पृष्ठ-13)। भारत के मामले में विदेशी प्रशासन की यह अपेक्षाएं ऐतिहासिक समझ पर प्रभावी रहीं। प्राचीन भारतीय इतिहास की व्याख्या पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

भारतीय उपमहाद्वीप में न आर्य बाहर से आए थे और न ही शूद्र। पाँच हजार वर्ष पूर्व पूरे उपमहाद्वीप में कई मानववंशीय जनजातियाँ निवास करती थीं। भारत में लगभग 4635 मानव-समुदाय की पहचान की गई है, जिनके नाक-नक्श, भाषा, वेश-भूषा, उपासना की पद्धति, पेशे, खान-पान, आदतें और नाते-रिश्ते के रूप अलग-अलग हैं। उस समय भूगोलिक सीमाएं बाधा नहीं थीं, जनजातियाँ भोजन की खोज में एक जगह से दूसरी जगह जाया करती थीं। इस क्रम में ये जातियाँ भारत से बाहर भी गईं और वहीं बस गईं। इसके विपरीत बाहरी जातियाँ भी भोजन की खोज में भारत की सीमा में प्रवेश कीं और यही बस गईं। इस प्रकार हजारों साल जातियों का समिश्रण चलता रहा। काले और गोरे रंग का आर्यत्व से कोई लेना-देना नहीं था। उत्तर भारतीय भूगोलिक कारणों से गोरे थे तो दक्षिण भारतीय भूगोलिक कारणों से काले। भारत में मानवीय क्रियाकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न मिलते हैं वे 400000 ई. पू. और 200000 ई.पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युग के संधिकाल के हैं।

उत्तर भारतीयों (खासकर हिमालय के तराई में रहनेवालों) में आचार-व्यवहार और नैतिक-मूल्यों को लेकर (जो पेशागत बदलाव के कारण अधिक था) एक नई सोच पैदा हुई जो खान-पान की शुद्धता पर आधारित थी। यह वर्ग अपने को सामाजिक रूप से श्रेष्ठ (आर्य) मानता था। यह वर्ग अन्य वर्गों को अनार्य (निकृष्ठ) कहता था। अतः, आर्य एक जाति न होकर एक संप्रदाय विशेष था जो क्रमशः अपना सामाजिक दायरा बढ़ाता जा रहा था। ये आर्य पशु-चारण से कृषक बनते जा रहे थे। बड़े कृषक सुर थे, देवता थे जबकि आहार-संग्रहक असुर थे, दानव थे। भगवान सिंह अपनी पुस्तक ‘भारतीय सभ्यता की निर्मिति’ में ‘सू’ का अर्थ पैदा करना, उत्पादन करना लेते हैं। इस प्रकार ‘सुर’ का अर्थ था पैदा करनेवाला, और ‘असुर’ का अर्थ था अनुत्पादक या आहार संग्रह तथा शिकार पर निर्भर करनेवाला। यह रक्त, भाषा या स्थानीयता या परदेशीपन के आधार पर किया गया बंटवारा नहीं था। इसमें दोनों पक्षों में उन्हीं जनों के लोग शामिल हैं जिन्हें मोटे तोर पर भारतीय कहा जाता है। पुरानी जीवन-पद्धति का अनुसरण और उसकी रक्षा करनेवाले राक्षस थे। कृषकों का जो मुखिया था उसे ‘इन्द्र’ कहा जाता था। इसे अपना इन्द्रत्व बचाने के लिए सदा धन-संग्रह और शक्ति-संग्रह में लगा रहना पड़ता था। स्वाभाविक था कि वह धन-संपत्ति के लिए खनिज और द्रव्य से संपन्न दासों और दस्युओं पर हमले की अगुआई करे। हिमालय की तराईयों में बसने वाली मातृ-प्रधान समाज की नारीयाँ अफसराएं और परियाँ थीं। भारतीय पौराणिक मिथको को इसी संदर्भ में देखना चाहिए।

यूरोपीय इतिहासकार आर्यों के वनिस्पत द्रविण, मुंडा और संताली भाषा-भाषी जनजातीयों को खड़ा करते थे। इनका मानना था कि ये जातीयाँ आर्यों से पहले भारत में निवास करती थीं, और ये ही यहाँ की मूल निवासी हैं। जबकि भाषिक विवेचनों से ज्ञात होता है कि आस्त्रिक बोलनेवाले (मुंडा, संताली आदि) बाहर से आये हुए हैं, आर्य और द्रविड़ भाषाएँ बोलनेवाले उनके आने के पहले से भारत में मौजूद थे। आस्त्रिक का शाब्दिक अर्थ है दक्षिण देशीय। सुदूर दक्षिण में होने के कारण आस्ट्रेलिया का नाम आस्ट्रेलिया पड़ा। मुंडा, संताली आदि भाषाओं के विषय में माना जाता है कि ये भाषायें आस्ट्रेलिया से लेकर भारत तक फैली हैं। इनके बोलनेवाले दक्षिणपूर्व एशिया से भारत में आए। नाग भाषाएं बोलनेवाले (तिब्बती-वर्मा समूह) सबसे बाद के हैं। प्राचीन साहित्य में इनका परिचय किरातों और यक्षों के रूप में मिलता है।

‘जाति’ शब्द ऋग्वेदिक काल में उतनी संकिर्ण नहीं थी जितनी आज है। जाति ‘जन’ से जुड़ा था। जाति जन्मना प्रदत था, अर्थात जन्म के कारण व्यक्ति जिस ‘जन’ से जुड़ा हुआ हो। जाति शब्द बांधव संबंधों पर जोर देता था। ‘जाति’ से जुड़ने का मतलब था ‘जन’ से जुड़ना। कालांतर में जन शब्द का प्रयोग कम होता गया और जाति शब्द का बढ़ता गया। अंत में इसका अर्थ हो गया अंतर्विवाही बांधव्य समूह। जाति शब्द सर्वप्रथम एक उत्तरकालीन पाठ (कात्यायन श्रोत सूत्र) में देखने को मिलता है जहाँ इसका प्रयोग दयाद के अर्थ में किया गया है। जाति सामाजिक और आर्थिक मूल्याकंन का दर्जा था जबकि वर्ण कर्मकांडी दर्जा।

जनजातीय समाज ने कबाइली समाज का और कबालली समाज ने प्रादेशिक पहचान (समाज) का जगह ले लिया जिससे प्रादेशिक इकाइयों ( जैसे गंधार, कुरी, पंचाल, मत्स्य, चेदी,काशि, कोशल, मगध आदि) का जन्म हुआ। वंश, बोली और प्रथागत कानून पूर्ववर्ती कबायली समाज की पहचान थी। जहाँ वैदिक काल में संपती का पैमाना पशु-धन था, वहीं बाद के काल में संपत्ति का संबंध पशुधन से कम, भूमी और द्रव्य से बढ़ता चला गया। भूमी का हस्तांतरण मुख्यतःउसी सामाजिक समूह के अन्दर होता था जिसका पहले से उस पर सामूहिक अधिकार था। राजनीतिक नियंत्रण तथा भूस्वामित्व के लिए वंश का महत्व सबसे अधिक था। क्षत्रिय कबीले भूस्वामियों के कबीले थे, जो या तो सूर्यवंशी थे या चंद्रवंशी। चंद्रवंशी घराने दोआब में केंद्रित थे जबकि सूर्यवंशी गंगा के मैदान के बीच वाले हिस्से में बसे हुए थे। खेती की जमीन पर आरम्भ में क्षत्रियवंश के सदस्यों का सामूहिक स्वामित्व होता था।

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