बुधवार, 2 नवंबर 2011


प्रेम की भाषा
बंद दरवाजे
खिड़िकियाँ बंद
हृदय-कपाट बंद इन्हीं-सा
सब कुछ बंद-बंद सा
इसे तोड़ने के लिए
अपनायी गुमनामी को छोड़ने के लिए
लाये कुछ गाछ फूलों के
मिट्टी भी भरी गमलों में
जल-फूहारें बरसायी
हहरायी बालकनी अपनी
दिल भी लगा उछलने उस दिन
देखा जब फुदकते दो प्रेमी मैनों को
प्रेम की भाषा में बतियाते
चोंच से चोंच भिड़ाते
खुजलाते डैनों को
अपनत्व के स्पर्श से
बालकनी के तारों पर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें