गुरुवार, 3 नवंबर 2011


वह पत्र की तरह आया


वह पत्र की तरह आया

उसकी आवाज
सुदूर पहाड़ियों से आ रही अनुगूँज की तरह थी

उसकी तलहथी
हिम की तरह ठंडी लगी
और जाबान
आत्मीयता की उष्मा से सराबोर

वह मेरे सामने बैठा
अपने को एक एलबम की तरह खोल रहा था

उसके दिमाग में
भावी योजनाओं के पन्ने खुल रहे थे

वह थोड़े समय में
बहुत कुछ कह देना चाहता था

उसने कहा भी
समझा भी
समझाया भी
और जाने के समय आँखों से मुस्कुराया भी

प्रेम की भाषा

जड़ से कटा हूँ
जब से फ्लैट में अटा पड़ा हूँ
कि नहीं हो पाती मुलाकातें
शिकवा – शिकायतें
अपनों से
लंगोटिया यार-दोस्तों से

बंद दरवाजे
खिड़िकियाँ बंद
हृदय-कपाट बंद इन्हीं-सा
सब कुछ बंद-बंद सा
इसे तोड़ने के लिए
अपनायी गुमनामी को छोड़ने के लिए
लाये कुछ गाछ फूलों के
मिट्टी भी भरी गमलों में
जल-फूहारें बरसायी
हहरायी बालकनी अपनी
दिल भी लगा उछलने उस दिन
देखा जब फुदकते दो प्रेमी मैनों को
प्रेम की भाषा में बतियाते
चोंच से चोंच भिड़ाते
खुजलाते डैनों को
अपनत्व के स्पर्श से
बालकनी के तारों पर

बुधवार, 2 नवंबर 2011


जन्नत

जब से समा गया है
चुलबुले दिमाग में
मायाबी बाजार का सतरंगी वायरस
हम महसूस करने लगे हैं
एक नया जन्नत अपने अन्दर

है एक जन्नत
हम सभी के अंदर

हम
अपने जन्नत का नक्शा छुपाये
भटकते रहते हैं सारा जीवन

जीवन की मंथर नदी में बहते हुए
हम खंघालते हैं
सुख-दुख के अनगिनत सुनहले कण

हहराती जीवन-धारा बहा ले जाती है
हमारे छोटे-छोटे सुख के कणों को

सुख के कणों को पकड़ने में 
चुक जाता है सारा जीवन

हम खोजते रहते हैं मायावी जन्नत
बाजार की रंगीनियों में
बाजार देखता रहता है अपना स्थूल जन्नत
हमारी जेब में

फिर भी अपने जन्नत का मोह
हमें जीवंत बनाये रखता है आखिरी सांस तक

खत्म नहीं हुई है अभी

पानी से दबी थी एक हरी-भरी धरती

इंसानियत
इस धरती पर
तलाश रही थी जमीं
पाँव के नीचे

वह तलाश रही थी जमीन
और जमीन
उससे उतनी ही बिछुड़ती जा रही थी

पाँव और धरती के बीच
जल का सैलाब मोटा होता जा रहा था
और मोटी होती जा रही थी कोसी

जमीन पर कोसी थी
या जमीन कोसी में
कह पाना मुश्किल था

जो बात कही जा सकती थी
वह थी कोसी की अपरमीत तांडवत उल्लास
और उनके अंतहीन आँसुऔं की ताजी कहानी

यह कहानी
अभी खत्म नहीं हुई है
फिर शुरू होगी
अगले साल कहीं और से

टहल रहा है चाँदे

खुला आसमान
और नहाता चाँद
चाँदनी की बरसात में

बहुत दिनों बाद
देखा था चाँद को
बहुत दिनों बाद
आई थी याद किसी चाँदनी की

घर-दफ्तर की दौड़ में
हाँफ्ते समय को
कहाँ याद आता है
मालूम पड़ता है कब
उसके छत पर
टहल रहा है
एक चाँद धवल चाँदनी में

प्रेम की भाषा
बंद दरवाजे
खिड़िकियाँ बंद
हृदय-कपाट बंद इन्हीं-सा
सब कुछ बंद-बंद सा
इसे तोड़ने के लिए
अपनायी गुमनामी को छोड़ने के लिए
लाये कुछ गाछ फूलों के
मिट्टी भी भरी गमलों में
जल-फूहारें बरसायी
हहरायी बालकनी अपनी
दिल भी लगा उछलने उस दिन
देखा जब फुदकते दो प्रेमी मैनों को
प्रेम की भाषा में बतियाते
चोंच से चोंच भिड़ाते
खुजलाते डैनों को
अपनत्व के स्पर्श से
बालकनी के तारों पर