बाबूजी
बाबूजी
उम्र की भारी गठरी
कंधों पर लादे
भरे घर के उदास कमरे में
अपनी आत्मीय खाट पर बैठे
थकी-थकी धुंधलायी-उबलायी नजरों से
देखते सुनसान दरवाजे की ओर
शायद उनके आधुनिक श्रवणकुमारों में से कोई आ जाए
बोले – बतियाए
खंडित मन को जोड़े
दुखती रगों को सहलाये
फुसलाये-भरमाये
बनावटी ही सही
स्नेह-आदर का लेप लगाये
पुरानी यादों के मीठे घाटों पर
उन्हें बातों के रस्ते ले जाये
पर नही .....
कोई नहीं दिखता वहाँ
झुर्रीदार चेहरे पर
मुद्रास्फीति के घटते-बढ़ते ग्राफ-सी
खिंच जाती हैं कुछ और रेखाएं
घबड़ाकर ... पोंछते चश्मे को
संभव है दीख जायें बच्चे ही
आते हुए दरवाजे से
नहीं ... कोई नहीं ...
कोई नहीं वहाँ पर
सभी के दरवाजे हैं बंद
एक गहरी चुप्पी हो उठती मुखर
जिसका शोर होता असहनीय
वह खोल देते रेडियो-दूरदर्शन
बाहरी हलचल की सरगम से
अंदर की चुप्पी हो उठती और मुखर
चट्ख उठता शीशा-सा दिल
अन्तस्थल फड़फड़ाता
नम हो जाती आँखें
अनचाहे लुढ़क पड़ती दो बेबस बूंदें
स्नेही गाल के अनुभवी छालों पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें