शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

खिलखिलाती लड़कियाँ

खिलखिलाती लड़कियाँ

मोबाइल पर
घंटों खिलखिलाती रहती हैं लड़कियाँ
खत्म ही नहीं होती उनकी बात
न जाने किन भावों-विचारों के
किन-किन खाइयों और  ऊच्चाइयों से
होकर वे गुजरती हैं
मगर जब भी वे हँसती हैं
एक आत्मीय अन्नद से सराबोर हो जाती हैं
फोन की एक घंटी
उन्हें सारा दिन
तरोताजा बनाये रखती है

ग़ज़ल, कविता
हाँ, यही वे नाम हैं
जो फोन से धीमे स्वर में निकलते हैं
और वे चहचहा उठती हैं
बनने लगती हैं उनकी योजनाएं
स्कूल जाने की, मिलने की, घुमने की,  खाने की
होकर बेखबर
क्या सोचता है उनका घर-समाज
धर्म और मजहब
उन्हें नहीं होती है दंगे की भनक
राजनीति की शनक
हँसते-बोलते वे
न जाने क्या-क्या सपने देखती हैं

जरूर
ये लड़कियाँ
कुछ बुन रही होती हैं
अपनी हँसी से, अपने सपनों से
पुरानी मान्यताओं को
धुन रही होती हैं



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