बुधवार, 2 नवंबर 2011


जन्नत

जब से समा गया है
चुलबुले दिमाग में
मायाबी बाजार का सतरंगी वायरस
हम महसूस करने लगे हैं
एक नया जन्नत अपने अन्दर

है एक जन्नत
हम सभी के अंदर

हम
अपने जन्नत का नक्शा छुपाये
भटकते रहते हैं सारा जीवन

जीवन की मंथर नदी में बहते हुए
हम खंघालते हैं
सुख-दुख के अनगिनत सुनहले कण

हहराती जीवन-धारा बहा ले जाती है
हमारे छोटे-छोटे सुख के कणों को

सुख के कणों को पकड़ने में 
चुक जाता है सारा जीवन

हम खोजते रहते हैं मायावी जन्नत
बाजार की रंगीनियों में
बाजार देखता रहता है अपना स्थूल जन्नत
हमारी जेब में

फिर भी अपने जन्नत का मोह
हमें जीवंत बनाये रखता है आखिरी सांस तक

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