रविवार, 25 सितंबर 2011

कविताएं

अस्तित्व
आगत हूँ
न हूँ विगत
स्वप्न हूँ
न हूँ मिथक
जिंदा है जो पल
वह मैं हूँ
वह मैं हूँ 

आँखों की भाषा

नहीं होता विश्वास तुम्हारी बातों पर
होता भी कैसे –
जो तुम कहती हो
उससे तूम्हारी आँखें सहमत नज़र नहीं आतीं
मैं जानता हूँ आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं
बोल भी नही सकती
उन्हें सच पढ़ने की आदत होती है
कहाँ छिप पाता है
किसी के दिल का भेद
तुम्हारी राडार सी संवेदी आँखों से

तुम्हारी गुरू-गम्भीर आँखों से
मूक संवाद करने के बाद
सोचता हूँ
जब दुनियाँ की सारी भाषाएं
समाप्त हो जाएगीं
तब भी आँखों की भाषा में
जारी रहेगा दुनिया का संवाद


कुछ नया चाहता हूँ
मैं नए वर्ष में
एक नए स्वप्न के साथ जगना चाहता हूँ
जहाँ
मानवता की नई ईबादत लिखने में
पुराने औजारों की जरूरत न पड़े
जाति-धर्म
जहाँ अतित की चीज हों
कुछ  सुनी-सुनी सी
लेकिन अविश्वसनीय सी

असमानता का समंन्दर सिकुड़ चुका हो
समानता की नदी समन्दर बन चुकी हो

विश्वग्राम में
ईर्ष्या हीन हो, अमंगल दीन हो
बाजार संवेदनशील हो

फूल की खूश्बू पर
केवल हवाओं का अधिकार न हो
धूप का भी हो
बादल का भी
उतना ही वर्षा का भी

सर्द मौसम में
कुनकुनी धूप सबकी हो

आकाश के एक टुकड़े से
कोई भी घर वंचित न हो

सुन्दरता मन की हो
हृदय की भी उतनी
जितनी तन की


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